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*सत्संगपीयूष920**सत्संग :नौंवी मणिका*
....योगेश्वर ने ऊपर बताया कि आत्मा नित्य है,अशोच्य है।पर जब ये आत्मा एक शरीर छोड़ दूसरे को ग्रहण करता है,तो,उसे अत्यंत कष्ट होता है,अतः उसके लिए शोक करना कैसे अनुचित है? इस पर योगेश्वर कहते हैं--गीता 2/22
*वासांसि जीर्णानि यथा विहाय*
*नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।*
*तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-*
*न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।*
जैसे पुराने बस्त्र को छोड़कर नए को धारण करने में किसी को कोई दुःख नही होता वैसे ही पुराने शरीर को छोड़ ये आत्मा दूसरी शरीर ग्रहण करता है,इसमें शोक का कोई स्थान नही।
यहां पुरानी शरीर कहने से मतलब 100 साल पुराना शरीर से मतलब नही ,कुछ दिनों का भी हो तो उतने दिन पुराना तो है ही।
गीता 2/22 में बासान्सि ,शरीराणि कहा है,जो बहुबचन है,पर आत्मा तो एक समय मे एक ही शरीर छोड़ेगा? ऐसा भगवान ने इसलिए कहा कि आत्मा अब तक न जाने कितने शरीर छोड़ चुका और कितने ग्रहण कर लिया ,इसलिए बहुबचन आया है।
यहाँ एक प्रश्न और खड़ा हो गया कि ,जब ,आत्मा न कही जाता है न आता है ,तो यहां जो कह रहे हैं कि एक शरीर छोड़ दूसरे में गमन करता है,ठीक नही लगता?
इस पर कहते हैं कि ठीक बात आत्मा आती जाती नही,पर जैसे *एक घट एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है तो घटाकाश पहले स्थान से दूसरे में जाता प्रतीत होता है,ऐसे ही आत्मा को समझें।
गीता के 2/22 में 'नरः' और 'देही' आया है, *नरः* मनुष्य मात्र के लिए और *देही* समस्त भूत समुदाय के लिए प्रयोग किया है।ऐसा इसलिए कि एक बस्त्र छोड़ कर दूसरा तो मनुष्य ग्रहण करता है,अन्य जीव नही,पर एक शरीर से दूसरे में जाना सभी देहाभिमानियों के लिए होता है।
इसीलिए बस्त्रो के साथ *नरः* और शरीर के साथ *देही* का प्रयोग हुआ है।
*श्री कृष्नार्पनमस्तु*
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