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शास्त्रकारों ने सन्तान उत्पत्ति के लिए छोड़कर ओर किसी भी अवस्था में वीर्यनाश करने की आज्ञा क्यों नहीं दीजानिए बिस्तार से
मनुष्य-शरीर के सार-त्तत्त्व का नाम वीर्य है। वैद्यक शास्त्र ने जीवन का मूल तत्त्व इस वीर्य को ही माना है। यह वीर्य आहार. का अन्तिम तत्त्व है। आयुर्वेद का मत है:-
भोजन के पचने पर रस, रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से वीर्य पैदा होता है। इससे लेकर मज्जा तक प्रत्येक धातु पाँच दिन-रात और डेढ़ घड़ी तक अपनी अवस्था में रहती है। बाद तीस दिन रात ओर नौ घड़ी में रस से वीर्य चनता है। ऐसा भोज तथा अन्य आचार्यों ने लिखा है। स्पष्ट रीति से यों समझना चाहिए कि मनुष्य जो कुछ आज भोजन करता है, उसका वायं बनने में पूरा एक महीना लगता है। इसी प्रकार और इतने ह। समय में स्त्री-शरीर में रज पैदा होता है। शरीर के बलाबल के अनुसार इस समय में न्यूनाधिकता भी हो जाती है।
इसी पुरुष-वीर्य और स्त्री-रज के अधीन स्त्री-पुरुष की शारी-रिक और मानसिक सारी शक्तियाँ रहती हैं। इसो के प्रभाव से ब्रह्मचारी पुरुषों और ब्रह्मचारिणी स्त्रियों का शरीर बल-वोर्य से पूर्ण, सुन्दर, हृष्ट-पुष्ट तथा पवित्र देखा जाता है। यदि यह न रहे, तो शरीर एक क्षण भी न टिके । शरीर-स्थिति का मूल तत्त्व यही है। अब यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि वीर्य की उत्पत्ति शरीर में किस अवस्था से होती है। यों तो शरीर की
उत्पत्ति ही वीय से होती है। अतः वीर्य-शून्य तो कभी शरीर रहता ही नहीं और न वोर्य-हीन शरीर जीवित रह सकता है। पर स्पष्ट रूप से 12-13 वर्ष की अवस्था से शरीर में वीर्य बनने लगता है। इससे पहले शरीर में जो बाय बनता है, वह सब का सब शरीर की वृद्धि और उसके विकास में खर्च हो आया करता है और किशोरावस्था के आरम्भ में वह दिखलायी पड़ने लगता हैं। पचीस वर्ष की अवस्था तक पुरुष-शरीर का वृद्धि-क्रम जारी रहता है। तत्पश्चात् उसमें पुष्टता आती है। इसी अवस्था में वीर्य परिपक्व भी होता है। जो मनुष्य इस अवस्था से पहले ही वीर्य-पात करना प्रारम्भ कर देता है, उसका वीर्य कभी भी पुष्ट नहीं होता ओर साथ ही उसके शरीर की बाढ़ भी मारी जाती है। अतएव पचीस वर्ष की अवस्था तक बीर्य का संचय करना अत्यन्तावश्यक है। सुश्रुताचार्य ने लिखा है -
सोलह वर्ष से कम उम्र की स्त्री और पचीस से कम अवस्था के पुरुष के रज-वीर्य से जो गर्भाधान होता है वह नष्ट हो जाता है। अभिप्राय यह है कि उससे जो सन्तान पैदा होती है, वह सर्वगुण-सम्पन्न और दीर्घायु नहीं होती। यह बीर्य बहुत ही कम मात्रा में तैयार होता है। कुछ लोगों का कहना है कि
ग्रास आहार से 2 बुँद रक्त और 40 बुँद रक्त से १ बूँद बीर्य तैयार होता है। वैज्ञानिकों का मत है कि २ तोला वीर्य के लिए 1 सेर रक्त और 1 सेर रक्त के लिए 1 मन आहार की आवश्य-कता होती है।
अब यह बात मालूम हो गयी कि यदि निरोग मनुष्य सेर-भर अन्न रोज खाये तो 40 दिन में वह 40 सेर अन्न खा सकेगा। अतएव उसकी 40 दिनकी कमाई दो तोला वीर्य है। इस हिसाब से 30 दिन की कमाई में केवल डेढ़ तोला वीर्य ही हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को प्राप्त होता है। ऐसे मूल्यवान पदार्थ को शरीर से निकाल देना कितना अनर्थ है। इस पर लोग पूछ सकते हैं कि जब यह इतना कम तैयार होता है, तत्र रात-दिन विषय करने-बालों के शरीर में यह आता कहाँ से है? प्रश्न बहुत ही ठीक है। बात यह है कि मनुष्य के शरीर में वीर्य सदा कुछ-न-कुछ तैयार रहता है। हम पहले ही कह आये हैं कि वीर्य के बिना शरीर जीवित नहीं रह सकता। दूसरी बात यह है कि रात-दिन विषयः करने वाले मनुष्य का वीर्य अच्छी तरह से पकने तो पाता नहीं, वह तो अपने असली रूप में आने से पहले बाहर निकल जाता है; अतः उनके वीय को तो वीर्य कहना ही अनुचित है।
यहाँ पर एक बात का और उल्लेख कर देना आवश्यक है। वह यह कि बहुत लोग समझते हगि, यदि वीर्य हमेशा बनता है। और वह आहार का अन्तिम सार है तो कुछ समय में बहुतः
अधिक मात्रा में एकत्र है। जाता होगा। यदि उसे काम में न लाया जाय तो अन्ततः वह किस काम आवेगा। इसका साधारण उत्तर यही है कि आहार किये हुए पदार्थ से रस, रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से मेदा, मेदा से अस्थि (हड्डी) हड्डी से मज्जा और फिर उससे वीर्य बनता है। बाद वीर्य की भी पाचन क्रिया होती है। स्थून भाग तो वीर्य में रहता है और सूक्ष्म भाग का 'ओज' बन जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सब धातुओं में सर्वश्रेष्ठ वस्तु वीर्य है और वार्य का श्रेष्ठ भाग ओज है। इसी ओज का दुसरा नाम बल भी है। इस ओज की ज्यों-ज्यों वृद्धि होती है, त्यों-त्यों शरोर की वृद्धि होती है ओर इसकी न्यूनता से शरीर का नाश हे।ता है। उत्साह, साहस, धैर्य, लावण्य, संयम, तेज, सौन्दर्य, प्रसन्नता, बुद्धि आदि इसी ओज की विभूतियाँ हैं। अधिक मात्रा में वीर्य का नाश करने वालों में ये विभूतियाँ नहीं रहीं। यही कारण है कि हमारे शास्त्रकारों ने सन्तानात्पत्ति के लिए छोड़कर ओर किसी भी अवस्था में वीर्यनाश करने की आज्ञा नहीं दी है।
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